s

1857 की क्रान्ति के पश्चात् भारतीय राष्ट्रीय चेतना का उदय और उसके सहायक तत्व (स्वतन्त्रता संघर्ष) || Rise of Indian National Consciousness

   1827   Copy    Share

1857 की क्रान्ति के पश्चात् यद्यपि अंग्रेजो ने भारत में कठोरता से दमन चक चलाया परन्तु उसका विपरीत प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों के कठोर दमन ने भारतीय जनता के हृदय में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति कटुता और घृणा भाव उत्पन्न कर दिये। समाज सुधार और आधुनीकीकरण के आन्दोलनों का प्रारम्भ पहले ही हो चुका था। ये आन्दोलन 1857 की क्रान्ति के पश्चात् और अधिक गतिशील हो गये। धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में नवजागरण की लहर आयी जिसके साथ-साथ भारतवासियों में राष्ट्रीय चेतना भी उत्पन्न हुई परम्परागत चली आ रही रूढ़ियों तथा अन्धविश्वास धीरे-धीरे समाप्त होने लगे। संचार साधनों के विकास, एक समान प्रशासनिक व्यवस्था तथा उदारवादी साहित्य के प्रकाशन ने भारतवासियों में राष्ट्रीयता की भावना भर दी।

संक्षेप में कहा जाये तो भारत में राष्ट्रीयता का विकास उन्नीसवी शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। भारत की प्राचीन सामाजिक तथा आर्थिक पद्धति की समाप्ति, आधुनिक वाणिज्य और उद्योगों का आरम्भ और नवीन सामाजिक वर्गों ने भारत में राष्ट्रीयता की नींव डाली। राष्ट्रीय भावनाओं के विकास में अंग्रेजी भाषा का प्रसार तथा पाश्चात्य साहित्य की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रारम्भ

अधिकांश विद्वानों और इतिहासकारों के अनुसार अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ से ही राष्ट्रीय आन्दोलन का उदय समझा जाता है तथा कांग्रेस का इतिहास ही राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास समझा जाता है। यह सत्य है कि कांग्रेस की स्थापना से पूर्व और बाद भी ऐसी शक्तियाँ थी जो राष्ट्रीय जागरण में सहायक थीं परन्तु इस पर भी यह भी सत्य है कि इस क्षेत्र में प्रमुख भूमिका कांग्रेस की ही रही। इस विषय में आर० सी० मजूदार का यह कथन उल्लेखनीय है - "काग्रेस की स्थापना के पूर्व और पश्चात् दूसरी अनेक शक्तियों के द्वारा भी इस उद्देश्य से कार्य किया था लेकिन कांग्रेस ने भारतीय स्वतन्त्रता के संघर्ष में सदा ही केन्द्र का कार्य किया। वह धुरी थी जिसके चारों ओर स्वतन्त्रता की महान गाथा की विविध घटनायें घटित हुई।"

राष्ट्रीय चेतना के उदय के कारण

भारत में राष्ट्रीय चेतना के उदय के निम्नलिखित कारण थे -
(1) 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के परिणाम।
(2) राजनीतिक एकता की स्थापना।
(3) अंग्रेजी शासन का प्रभाव।
(4) धार्मिक व सामाजिक सुधार आन्दोलन।
(5) भारत के प्राचीन इतिहास, संस्कृति व कलाओं की खोज व प्रशंसा।
(6) पाश्चात्य शिक्षा।
(7) परिवहन और संचार के तीव्र साधनों का विकास।
(8) भारतीय समाचार पत्र तथा साहित्य।
(9) यूरोपियन देशों के साथ सम्पर्क।
(10) आर्थिक शोषण।
(11) शिक्षित भारतीयों में असन्तोष।
(12) इलबर्ट बिल पर विवाद।
(13) अंग्रेजों की जातिभेद की नीति।
(14) लार्ड लिटन की दमनात्मक नीति।
(15) राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना।

(1) 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम और उसके परिणाम - 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को यद्यपि दबा दिया गया था परन्तु इसे पूर्णतया निष्फल नहीं कहा जा सकता। इसके परिणाम अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा दूरगामी निकले। इस संग्राम में भारतीय जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रभावित किया। 1857 के पश्चात् भारतीय जनता अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव रखने लगी। इसका मुख्य कारण यह था क्रान्ति का दमन करते समय अंग्रेजों ने जनसाधारण पर जो अत्याचार किये थे उनकी याद उनके हृदय को दहला देती थी। एडबर्ड थाम्पसन के शब्दों में "विद्रोह के पश्चात् भारतवासियों में अंग्रेजों के प्रति भयंकर घृणा की भावना आ गयी थी और भारतीयों में विद्रोह का विचार आते ही अंग्रेजो से बदला लेने की भावना बढ़ती ही जाती थी।" इसी प्रकार चार्ल्स डित्के ने लिखा है कि "अंग्रेजों ने अपने कैदियों को बिना न्यायिक कार्यवाही के और ऐसे ढंग से हत्या कर दी जो सभी भारतीयों की दृष्टि में पाश्विकता की चरम सीमा थी। ......... दमन के दौरान गाँव के गाँव जला दिये गये। निर्दोष ग्रामीणों का वह कत्लेआम किया गया कि मुहम्मद तुगलक भी उससे शरमा जायेगा।" अंग्रेजों की बदला लेने की इस प्रकार की प्रवृत्ति ने भारतीय जन असन्तोष को और भी बढावा दिया। ज्यों-ज्यों अंग्रेजों के अत्याचार बढ़े, भारतवासियों के मन में अंग्रेजी शासन को जड़मूल से उखाड़ फेंकने की भावना बढ़ी।

(2) राजनीतिक एकता की स्थापना - यह सत्य है कि भारत में हजारों वर्ष से एक मूलभूत मौलिकता और सांस्कृतिक एकता थी परन्तु आवागमन के साधनों के अभाव के कारण राजनीतिक एकता का प्रायः अभाव था। ब्रिटिश शासन काल में प्रथम बार सम्पूर्ण भारत एक राजनीतिक सत्ता की अधीनता में आ गया जिससे एक राष्ट्र की भावना को बल मिला। वी. स्मिथ के शब्दों में "रक्त, रंग, भाषा, वेश रीति-रिवाज और सम्प्रदाय आदि असंख्य विभिन्नताएँ रहते हुए भी एक मौलिक एकता रही है। अंग्रेजी शासन के पूर्व अनेक राज्य उत्पन्न हो जाने के कारण यह एकता कुछ नष्ट हो गयी थी, परन्तु अंग्रेजी साम्राज्य वाद के कारण यह समस्त जनता एकसे राजनीतिक वातावरण में रहने लगी जिससे यह मौलिक एकता पुन उत्पन्न हो गयी।" यातायात के साधनों के विकास ने एकता की भावना उत्पन्न करने में भी विशेष योग दिया।

प्रो० नून (Prof. Noon) के शब्दों में, "ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत में एक तीसरे दल की अध्यक्षता में राजनीतिक एकता उत्पन्न की, यद्यपि भारतीय समाज में अनेक विभिन्नताएँ प्रचलित थीं। यह सत्य है कि भारत में राजनीतिक एकता अंग्रेजों ने अपने हित के लिए की थी परन्तु इस एकता ने भारत वासियों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने में योग दिया।"

(3) अंग्रेजी शासन का प्रभाव - अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में हमारे देश की जनता की इच्छाओं, स्वाभिमान तथा मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ण तया उपेक्षा की। उन्होंने भारतीय जनता के रीतिरिवाज परम्पराओं और धर्म का भी तिरस्कार किया। बड़े-बड़े राज-घराने जिनका भारतीय समाज में पर्याप्त मान-सम्मान था, अब उन्हें साधारण जनता की श्रेणी में रखा जाने लगा था। जनता उनकी दुर्दशा देखकर रोषित हो रही थी। 1857 की क्रान्ति के पश्चात् यद्यपि महारानी विक्टोरिया ने घोषणा कर दी थी कि भारतीयों के साथ अच्छा व्यवहार किया जायगा परन्तु व्यवहार में इसका उल्टा था। अंग्रेज अभी भी अपने से भारतवासियों को छोटा समझते थे तथा उन्हें हीन नस्ल का तथा आधे हब्शी समझकर घृणा की दृष्टि से देखते थे। समस्त उच्च पदों पर अंग्रेजो की ही नियुक्ति होती थी और भारतवासियों के लिए उच्च पदों के द्वार बन्द थे।

अंग्रेज सरकार भारतीय शिक्षा पद्धति, कृषि, उद्योगों के विकास तथा सिंचाई और स्वास्थ्य की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देती थी। उसका कार्य केवल दमन और शोषण के अतिरिक्त कुछ नहीं था। ऐसी दशा में भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति प्रतिदिन रोष बढ़ता गया और वह उसके साम्राज्यी चंगुल से छुटकारा पाने के लिए लालायित होने लगी।

(4) धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलन - 19 वीं शताब्दी के धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलनों ने राष्ट्रीयता के उदय में अपना विशेष योग दिया। राजाराम मोहनराय ने भारतीय समाज के अनेक दोषों को दूर करने के साथ-साथ भारतवासियों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के महत्व को बतलाया तथा धर्म को आधुनिकता के साँचे में ढालकर भारतीय समाज में नव-जीवन का संचार किया। स्वामी दयानन्द ने भारतवासियों को भारतीय संस्कृति और राष्ट्र के प्रति प्रेंम करने का पाठ पढ़ाया। उनका प्रमुख नारा था - "भारत भारतीयों के लिए है।" स्वामी विवेकानन्द भारतीय राष्ट्रीयता के अग्रदूत थे। उन्होंने निराशा में डूबे भारतवासियों को निर्भयता का सन्देश दिया तथा भारतीय धर्म और दर्शन की प्रमुख विशेषताओं को विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करके राष्ट्र के खोये गौरव को पुनः प्रतिष्ठित कर देशवासियों में आत्म सम्मान की भावना उत्पन्न की। विवेकानन्द भारतवासियों को सम्बोधित करके कहा करते थे - "हे वीर! निर्भीक बनों, साहस धारण करो, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो। गर्व के साथ घोषणा करो मैं भारतीय हूँ। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलनों ने राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने में विशेष योगदान प्रदान किया। श्री ए० आर० देसाई धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलनों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं - "ये आन्दोलन कम अधिक मात्रा में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक समानता के लिये संघर्ष थे औज इनका चरम लक्ष्य राष्ट्रवाद था।"

(5) भारत के प्राचीन इतिहास, संस्कृति और कलाओं की खोज व प्रशंसा - अनेक विदेशी विद्वानों ने भी भारतीयों को अपनी संस्कृति के गौरव का आभास कराया। मिस्टर मैक्समूलर, मोनियर विनियम, रोथ, सैसून बुनर्फ आदि प्रसिद्ध पश्चिमी विद्वानों ने संस्कृत भाषा का बड़े श्रम के साथ अध्ययन किया और संस्कृत साहित्य को विश्व का श्रेष्ठ साहित्य बताया। इससे पश्चिमी जगत को तो संस्कृत की श्रेष्ठता का ज्ञान हुआ साथ ही भारत वासियों को भी अपनी संस्कृति के प्रति प्रेंम उत्पन्न हुआ। विदेशी विद्वानों की प्रशंसा ने उनके अन्दर की हीन भावना को दूर कर दिया और वे गौरव की भावना का अनुभव करने लगे। स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा विदेकानन्द ने भी भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा का गौरव गान किया था। भारतीय पढ़े-लिखे युवकों ने इसे आत्म प्रशंसा के रूप में लेकर उस पर विश्वास नहीं किया, परन्तु जब विदेशी विद्वानों ने भारतीय संस्कृति की प्रशंसा की, तो इन युवकों के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे यह सोचने पर मजबूर हो गये कि आज हम परतन्त्र क्यों हैं? अतः उन्होंने अपने खोये हुए गौरव को प्राप्त करने का निश्चय किया।

(6) पाश्चात्य शिक्षा - पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में अपूर्व योग प्रदान किया। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भारतीय बुद्धिजीवी पश्चिमी साहित्य और पाश्चात्य राजनीति विचारधारा से परिचित हुए। यूरोप में उन दिनों राष्ट्रीयता, समानता, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा उदारवाद आदि विचारों पर विशेष बल दिया जा रहा था। भारतीयों ने भी विचारों मे पर्याप्त प्रेरणा ली। इसके अतिरिक्त पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीयों को अमेरिका और यूरोप में हुए राष्ट्रीय आन्दोलनों की भी जानकारी दी। उन्हें इस बात का ज्ञान हुआ कि किस प्रकार साहस और निष्ठा के साथ मेजिनी और गोरीबाल्डी आदि ने इटालियन राष्ट्र के निर्माण के लिए संघर्ष किया था। इससे वे स्वयं भी भारत को एक महान तथा स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में देखने की कल्पना करने लगे। पाश्चात्य शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा था। अंग्रेजी भाषा का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि भारत में विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले लोगों की यह एक सम्पर्क भाषा बन गयी विभिन्न भावा-भावी अंग्रेजी के माध्यम से एक-दूसरे के निकट आये।

भारतीयों पर पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव के सम्बन्ध में ए० आर० देसाई लिखते हैं कि, "शिक्षित भारतीयों ने अमरीका, इटली और आयरलैण्ड के स्वतन्त्रता संग्रामों के सम्बन्ध में पढ़ा, उन्होंने ऐसे लेखकों की रचनाओं का अनुशीलन किया जिन्होंने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वाधीनता के सिद्धान्तों का प्रचार किया है। ये शिक्षित भारतीय भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के राजनीतिक और बौद्धिक नेता हो गये।"

(7) परिवहन और संचार के तीव्र साधनों का विकास - अपने साम्राज्य को दृढ़ करने के लिए अंग्रेजों ने परिवहन और संचार के साधनों जैसे रेल, सड़क, डाक-तार आदि के विकास पर सबसे अधिक ध्यान दिया। इन साधनों के विकास से सैनिक और व्यापारिक हितों की रक्षा होती थी। परन्तु इन साधनों के विकास ने भारत में एकता की भावना उत्पन्न करने में भी विशेष योग दिया। देश के विभिन्न भागों के लोग एक दूसरे के निकट आने लगे तथा राष्ट्रीय नेता सम्पूर्ण देश का दौरा करके जनसाधारण में राष्ट्रीयता का प्रसार करने लगे, समस्त भारत के लोग अपने को एक समझने लगे तथा उनमें परस्पर सहयोग और प्रेंम की भावनाओं का विकास होने लगा।

(8) भारतीय समाचारपत्र तथा साहित्य - 1857 के पश्चात् भारतीय समाचार पत्रों का बड़ी तीव्रता के साथ विकास हुआ। टाइम्स ऑफ इण्डिया, मद्रास मेल, स्टेट्समैन तथा सिविल एण्ड मिलिटरी गजट आदि पत्र शासक वर्ग के प्रवक्ता थे। ये सामाचारपत्र सरकारी नीतियों का समर्थन करते थे। इन पत्रों की नीतियों का उत्तर देने को अमृत बाजार पत्रिका, ट्रिब्यून तथा पायनियर आदि समाचार पत्रों का प्रकाशन किया गया। ये समस्त पत्र राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत थे तथा ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों की खुलकर आलोचना करते थे। देश के प्रमुख राष्ट्रीय नेता राजा राममोहन राय, केशव चन्द्र सेन, गोपालकृष्ण गोखले, बालगंगाधर तिलक, फिरोजशाह मेहता, दादाभाई नौरोजी सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी आदि किसी-न-किसी पत्रिका के सम्पादक थे। इनके लेख भारतीय जनता को जगाने वाले और कान्तिकारी विचारधाराओं से ओत-प्रोत थे।

साहित्यिक जगत में भी राष्ट्रीय साहित्य का सृजन होने लगा था। दीनबन्धु मित्र, हेमचन्द बनर्जी, नवीनचन्द्र सेठ, बंकिमचन्द्र चटर्जी, रमेशचन्द्र दत्त और रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि के लेखों ने जन-साधारण में राष्ट्रीय चेतना भर दी। बंकिमचन्द्र चटर्जी का 'आनन्द मठ' उस काल में राष्ट्रीय जागरण का एक अपूर्व साधन सिद्ध हुआ। 'नील दर्पण' नाटक में भारतीय किसानों की दयनीय दशा का चित्रण बड़े ही प्रभावशाली ढंग से किया गया।

(9) यूरोपियन देशों के साथ सम्पर्क - ब्रिटिश शासन काल में भारतवासियों का अन्य यूरोप के देशों के साथ भी सम्पर्क हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्रवाद की प्रचण्ड लहरें उठ रही थी। जर्मनी और इटली का एकीकरण हो चुका था तथा यूनान और बेल्जियम विदेशी शासन से मुक्ति प्राप्त कर चुके थे। इन समस्त घटनाओं ने पढ़े-लिखे भारतवासियों को अत्यधिक प्रभावित किया। लार्ड रोनाल्डशे (Lord Ronaldshay) के शब्दों में, "पाश्चात्य घटनाओं की नवीन शराब ने भारतीयों के हृदय पर गहरा प्रभाव किया। भारतवासियों ने स्वतन्त्रता तथा राष्ट्रीयता की गहरी बूँट का सेवन किया। हरबर्ट स्पेन्सर के व्यक्तिवाद और लार्ड मार्ले के उदारवाद ने भारतीय बुद्धिजीवियों के दृष्टिकोण को क्रान्तिकारी बना दिया। रैमजे मैकडोनल्ड (R. Macdonald) के अनुसार - "श्री हरबर्ट स्पेन्सर का व्यक्तिवाद तथा लार्ड मार्ले का उदारवाद ही ऐसी मशीनगनें हैं जो भारत ने हमसे छीन ली है और उनको हमारे ही विरुद्ध प्रयोग में ला रहा है।"

(10) आर्थिक शोषण - अंग्रेजों ने भारत में जो भी व्यापारिक और औद्योगिक नीति अपनायी वह केवल अपने आर्थिक लाभ को ध्यान में रखकर ही अपनायी। भारत से पहले ढाका की मलमल तथा छींट के सूती वस्त्र विदेशों में बिकने के लिये जाते थे। लाखों की संख्या में जुलाहे सूती वस्त्र उद्योग से अपना पेट भरते थे। परन्तु बाद में अंग्रेजों ने अपनी औद्योगिक नीति से भारत के इस प्रमुख उद्योग को पूर्णतया नष्ट कर दिया। इंग्लैण्ड में उस समय स्वतन्त्र व्यापार (free trade) का सिद्धान्त प्रचलित था। इस कारण 1877 में कपड़ों पर से आयात शुल्क (import duty) को हटा दिया गया। इसका परिणाम यह निकला कि भारत में इंग्लैंड का कपड़ा प्रचुर मात्रा में आने लगा जिससे यहाँ के वस्त्र उद्योग को गहरा आघात लगा। भारत में कुटीर उद्योग को अंग्रेज इस कारण भी नष्ट करता चाहते थे जिससे देश ब्रिटिश कारखानों के लिए आवश्यक कच्चे माल का उत्पादक और ब्रिटिश कारखानों के तैयार माल को मण्डी का रूप धारण कर ले। स्वतन्त्र वाणिज्य की नीति के कारण ब्रिटेन के कारखानों में तैयार हुई सस्ती वस्तुओं की प्रतियोगिता में भारत के यह उद्योग-धन्धे न ठहर सके।

गृह उद्योगों के नष्ट होने से देश की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर हो गयी जिससे कृषि की दशा पूर्व की अपेक्षा और भी अधिक दयनीय हो गयी। देश निर्धनता और बेकारी से बुरी तरह जकड़ गया। इस प्रकार के आर्थिक शोषण से भारतीयों में असन्तोष फैलने लगा और ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति प्राप्त करने के उपाय सोचने लगे।

(11) शिक्षित भारतीयों में असन्तोष - उन्नसवी शताब्दी के अन्तिम चरण तक भारत में शिक्षित युवकों का एक अच्छा-खासा वर्ग तैयार हो गया था। इनमें अनेक प्रतिभाशाली नवयुवक ये जो भारत के उच्च पदों पर नियुक्त होने की पूर्णतया योग्यता रखते थे। परन्तु जब उन्होंने देखा कि सरकारी नौकरियों के उच्च पद उनके लिए बन्द है तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। 1835 में मनमानी नियुक्ति के बजाय प्रतियोगिता परीक्षा की प्रणाली अपनायी गयी। परन्तु यह प्रणाली भी अत्यन्त कठिन थी क्योंकि इसमें सम्मिलित होने के लिए भारतीय नवयुवकों को इंग्लैण्ड जाना पड़ता था। इस प्रकार प्रत्येक भारतीय इस खर्चिली प्रतियोगिता में सम्मिलित नहीं हो पाता था। 1853 में परीक्षा में प्रवेश की आयु 23 वर्ष रखी गयी, पर 1859 में इसे घटाकर 22 वर्ष, 1866 मे घटाकर 21 वर्ष और 1876 में इसे अन्तिम रूप में घटाकर केवल 19 वर्ष कर दिया गया। इस प्रकार उम्र घट जाने से भारतीय नवयुवकों का परीक्षा में सम्मिलित होना एक प्रकार से असम्भव सा हो गया।

1869 में भारतीय नागरिक सेवा (I.C.S.) की परीक्षा में श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी बैठे और उत्तीर्ण हो गये, परन्तु कुछ कारणों से उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। इस घटना ने उनके हृदय पर गहरा आघात लगाया और वे इण्डिया ऐसोसियेशन (Indian Association) के सक्रिय कार्यकर्ता बन गये। नौकरियों में सरकार की भेदभावपूर्ण नीति का विरोध करने के लिये सम्पूर्ण भारत का दौरा किया और इस बात का प्रयास किया कि समस्त प्रान्तों में शिक्षित भारतीय एक होकर राजनीतिक अधिकारों की माँग करें। इस आन्दोलन से पर्याप्त राष्ट्रीय जाग्रति फैली। शिक्षित नवयुवक ब्रिटिश साम्राज्य के पोर विरोधी हो गये।

(12) इलबर्ट बिल पर विवाद - भारतीय मजिस्ट्रेट कानूनी कठिनाइयों के कारण अंग्रेज अपराधियों के न तो ठीक प्रकार से मुकदमे सुन सकते थे और न उन्हें ठीक प्रकार से दण्डित कर सकते थे। सन् 1880 में लार्ड रिपन भारत के वायसराय बने। ये उदारवादी न्यायप्रिय अंग्रेज थे। इस कठिनाई को दूर करने के लिए 1883 में उनकी कार्यकारिणी के कानूनी सदस्य पी. सी. इलबर्ट ने एक विधेयक से भारतीय जजों को यूरोपियन अपराधियों के मुकदमे सुनने का अधिकार देने का प्रस्ताव रखा। भारत में रहने वाले अंग्रेजों ने इसे अपना अपमान समझा और इस विधेयक का घोर विरोध किया तथा एक आन्दोलन छेड़ दिया। अंग्रेजों के विरोध के कारण इलबर्ट बिल को वापस ले लिया गया। इस बिल के पास न होने से स्पष्ट हो गया कि अंग्रेजों ने अपनी जाति-भेद की नीति को छोड़ा नहीं। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने अंग्रेजों की इस नीति का डटकर विरोध किया और 1883 में इसके विरोध में एक कान्फ्रेन्स भी बुलायी। श्री ताराचन्द्र के अनुसार, "महारानी के घोषणा-पत्र के अनुसार भारतीयों को गोरों के साथ समानता देने की ओर जो मामूली सा कदम उठाया गया था, उस पर श्वेतागों में इतना क्रोध और विरोध होना आँख खोल देने वाली बात थी। भारतीय जनता के लिए यह कटु अनुभव था कि अपने ही देश में वे नीचे दर्जे के हैं, उन्हें अधिकारी नीची नजरों से देखते हैं और उन्हें बहुत लम्बे और कष्टसाध्य संघर्ष से ही स्वतन्त्र नागरिकों के अधिकार प्राप्त हो सकेंगे।"

(13) अंग्रेजों को जाति-भेद को नीति - प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्व अंग्रेजों और भारतीयों के सम्बन्धों में पर्याप्त मधुरता थी परन्तु 1857 के पश्चात् अंग्रेजों ने जाति-भेद की नीति अपनायी जिसके परिणामस्वरूप दोनों के सम्बन्धों में पारस्परिक घृणा और कटुता उत्पन्न हो गयी। इंग्लैण्ड से भारत आने वाला प्रत्येक अंग्रेज भारतवासियों को हीन दृष्टि से देखता था। गुरुमुख निहालसिंह के अनुसार, "विद्रोह के पश्चात् भारत में आने वाले अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारतियों के बारे में बड़ी विचित्र धारणायें होती थी। वे मन्च के तत्कालीन हास्य चित्रों के अनुसार भारनियों को ऐसा जन्तु समझते थे जो आधा वनमानुष आधा नीग्रो था, जिसे केवल भय द्वारा ही समझाया जा सकता था और जिसके लिए जनरल नील तथा उसके साथियों की घृणा और आतंक का व्यवहार ही उपयुक्त था।"

अंग्रेजों द्वारा अपनायी गयी पक्षपातपूर्ण तथा जातीय अभिमान की नीति के विषय में मि. गैरट लिखते हैं- "उन्होंने अपने लिए एक विचित्र व्यवहार नीति अपनाई, जिसके तीन महत्वपूर्ण सिद्धान्त थे। प्रथम यह है कि एक यूरोपियन का जीवन अनेक भारतीयों के जीवन के बराबर है। द्वितीय, प्राच्य देशवासियों पर भय के आधार पर ही शासन किया जा सकता है। तीन यहाँ लोकहित के लिए नहीं, वरन अपने निजी लाभ और ऐश्वर्य के लिए आये हैं।

कभी-कभी अंग्रेज सरकार भारतीय जनता को मनमाने ढंग से कष्ट पहुँचाती थी तथा न्याय भावना की पूर्ण उपेक्षा की जाती थी। 1872 के मालेर कोटला उपद्रवों में 49 सिक्खों को बिना अभियोग निर्णय के तोप से उड़वा दिया गया। जाति पक्षपात की इस अन्यायपूर्ण नीति ने भारतवासियों में अंग्रेजों के प्रति घृणा के भाव भर दिये। गैरर का यह कथन पूर्णतया सत्य है कि "भारतीय राष्ट्रीयता की बढ़ोत्तरी में उपर्युक्त कटुता की भावना बहुत बड़ा कारण थी।"

(14) लार्ड लिटन की दमनात्मक नीति - यह कथन पूर्णतया सत्य है कि कभी-कभी दमनात्मक व क्रूर शासक सर्व साधारण में जाग्रति उत्पन्न कर देता है। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के शब्दों में, "राजनीतिक प्रगति के विकास में बुरे या क्रूर शासक बहुधा एक गुप्तवरदान के रूप में आते हैं। उनके कारण समाज में ऐसी जागृति उत्पन्न होती है, जैसे वर्षों के प्रचार और आन्दोलन से उत्पन्न न हो।" सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का यह कथन भारत में लार्ड लिटन के शासन के सम्बन्ध में पूर्णतया सत्य है। लार्डलिटन ने भारत में अपने शासनकाल में कुछ ऐसे कार्य किये जिनसे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला। लिटन के ये कार्य निम्नलिखित हैं।
(i) 1876 में भारतीय लोक सेवा की आयु को घटाकर 21 वर्ष से 19 वर्ष कर दिया गया। इससे अब भारतीयों का इस परीक्षा में सम्मिलित होना सम्भव नहीं रहा।
(ii) 1877 में लार्ड लिटन ने दिल्ली में महारानी विक्टोरिया के आगमन पर एक भव्य दरबार का आयोजन किया। यह दरबार उस समय लगाया गया जबकि दक्षिण भारत में अकाल पड़ रहा था। दरबार समारोह पर आँख मूँदकर धन बहाया गया।
(iii) लार्ड लिटन ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया। इस आक्रमण से कोई लाभ न हुआ और दो करोड़ स्टर्लिंग व्यर्थ में खर्च किया गया।
(iv) 1878 मे लार्डलिटन ने 'वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पास कर समाचार पत्रों पर कठोर नियन्त्रण लगा दिया।
(v) लार्ड लिटन के शासनकाल में शस्त्र अधिनियम भी पारित हुआ जिसके अनुसार कोई भी भारतीय बिना लाइसेन्स के शस्त्र लेकर नहीं चल सकता। परन्तु इस प्रकार का प्रतिबन्ध यूरोपियन और एग्लो इण्डियन पर नहीं लगाया गया।
(vi) लार्ड लिटन ने कपास सीमा शुल्क की भी समाप्त कर दी जिससे भारतीय कपास व्यापारियों को अपार हानि हुई तथा लंकाशायर के मिल मालिकों को विशेष लाभ हुआ।

लार्ड लिटन के उपर्युक्त कार्यों के परिणामस्वरूप अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति भारतीय जनता का असन्तोष पर्याप्त उग्र हो गया। सर विलियम वैडटबर्न के अनुसार - "लार्ड लिटन के शासन काल के अन्त में स्थिति विद्रोह सीमा तक पहुँच गई थी।"

(15) राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना - नवजागरण के उदय के कारण भारतवासियों में एक नवीन चेतना आयी जिसके परिणामस्वरूप देश के विभिन्न भागों में अनेक राष्ट्रीय राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हुई। इस प्रकार की प्रमुख संस्थायें भी ब्रिटिश इण्डियन एसोसियेशन, इण्डिया लीग, इण्डियन एसोसियेशन, पूना की सार्वजनिक सभा आदि। ये सभी संस्थाएँ कांग्रेस से पूर्व की थी। "ब्रिटिश इण्डियन एसोसियेशन" की स्थापना 1851 में की गयी भी। इस संस्था के द्वारा राजेन्द्रपाल मिश्र, रामगोपाल घोष, प्यारेचन्द्र मित्रा तथा हरिश्चन्द्र मुखर्जी जैसे योग्य व्यक्तियों के निर्देशन में कार्य किया गया। इस संस्था ने भारतवासियों के लिए राजनीतिक अधिकारों की मांग की और इसी उद्देश्य से 1852 में ब्रिटिश संसद को स्मृति पत्र भेजा। बंगाल में 1875 में इण्डिया लीग की स्थापना की गई। इस संस्था की स्थापना का मुख्य उद्देश्य भारत के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा देना था। 1876 में इण्डियन एसोसियेशन की स्थापना हुई। इस संस्था के प्रमुख उद्देश्य थे देश में सबल जनमत का निर्माण करना, हिन्दू मुस्लिम मित्रता की स्थापना करना तथा सार्वजनिक आन्दोलन में सामान्य जनता को सम्मिलित करना।

उपर्युक्त सभी संस्थाओं के द्वारा विभिन्न प्रान्तों में राजनीतिक चेतना उदय का कार्य बड़ी निष्ठा के साथ किया जाता रहा। ये संस्थाएँ भारत के बुद्धिजीवियों को संगठित कर उनमें राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करने का प्रयास करती रही।

इतिहास के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़ें। (Also read these 👇 episodes of History.)
1. चक्रवर्ती सम्राट राजा भोज | Chakravarti Samrat Raja Bhoj
2. समुद्रगुप्त और नेपोलियन के गुणों की तुलना | Comparison Of The Qualities Of Samudragupta And Napoleon
3. भारतीय इतिहास के गुप्त काल की प्रमुख विशेषताएँ | Salient Features Of The Gupta Period Of Indian History
4. आर्य समाज- प्रमुख सिद्धांत एवं कार्य | Arya Samaj - Major Principles And Functions
5. सम्राट हर्षवर्धन एवं उनका शासनकाल | Emperor Harshavardhana And His Reign

इतिहास के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़ें। (Also read these 👇 episodes of History.)
1. प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्त्रोत | पुरातात्विक स्त्रोत और साहित्यिक स्त्रोत || Sources To Know Ancient Indian History
2. मगध का हर्यक वंश– बिम्बिसार, अजातशत्रु, उदायिन, नागदशक
3. मगध का नन्द वंश– महापद्मनन्द, धनानन्द
4. अभिलेख क्या होते हैं? | प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख
5. प्राचीन भारत के पुरातात्विक स्त्रोत– अभिलेख, स्मारक, भवन, सिक्के, मूर्तियाँ, चित्रकला, मुहरें

इतिहास के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़ें।
1. प्राचीन भारत के पुरातात्विक स्त्रोत 'वेद'– ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद
2. प्राचीन भारत के ऐतिहासिक स्त्रोत– ब्राह्मण ग्रंथ, वेदांग, सूत्र, महाकाव्य, पुराण
3. प्राचीन भारत का इतिहास जानने के साहित्यिक स्त्रोत– बौद्ध साहित्य और जैन साहित्य
4. प्राचीन भारत के राजाओं के जीवन पर लिखी गई पुस्तकें
5. प्राचीन भारत के बारे में यूनान और रोम के लेखकों ने क्या लिखा?

इतिहास के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़ें।
1. प्राचीन काल में भारत आने वाले चीनी यात्री– फाहियान, ह्वेनसांग, इत्सिंग
2. सिंधु घाटी सभ्यता– परिचय, खोज, नामकरण, काल निर्धारण एवं भौगोलिक विस्तार
3. सिन्धु (हड़प्पा) सभ्यता की नगर योजना और नगरों की विशेषताएँ
4. सिन्धु सभ्यता के स्थल– हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हूदड़ो, लोथल
5. सिन्धु सभ्यता के प्रमुख स्थल– राखीगढ़ी, कालीबंगा, बनावली, धौलावीरा

इतिहास के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़ें।
1. सिन्धु सभ्यता के स्थलों से कौन-कौन सी वस्तुएँ प्राप्त हुईं
2. हड़प्पा सभ्यता (सिन्धु सभ्यता) का समाज एवं संस्कृति
3. हड़प्पा काल में शासन कैसे किया जाता था? | हड़प्पा (सिन्धु) सभ्यता की लिपि
4. सिन्धु सभ्यता (हड़प्पा सभ्यता) में कृषि, पशुपालन एवं व्यापार
5. हड़प्पा (सिन्धु) सभ्यता के लोगों का धर्म, देवी-देवता एवं पूजा-पाठ

इतिहास के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़ें।
1. सिन्धु (हड़प्पा) सभ्यता का पतन कैसे हुआ?
2. वैदिक सभ्यता (आर्य सभ्यता) क्या थी? | ऋग्वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल
3. ऋग्वैदिक काल के क्षेत्र– ब्रह्मवर्त्त, आर्यावर्त और सप्त सैंधव क्षेत्र
4. ऋग्वैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था, स्त्रियों की स्थिति तथा आर्यों के भोजन व वस्त्र
5. कबीला किसे कहते हैं? | कबीलाई संगठन– कुल, ग्राम, विश, जन और राष्ट्र

इतिहास के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़ें।
1. सिन्धु घाटी सभ्यता और वैदिक सभ्यता में अन्तर
2. गाय को सबसे पवित्र पशु क्यों माना जाता है?
3. वैदिक काल के देवी एवं देवता– इन्द्र, अग्नि, वरूण, सवितृ, सोम, धौस, सरस्वती, पूषन, रूद्र, अरण्यानी

I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
edudurga.com

Watch video for related information
(संबंधित जानकारी के लिए नीचे दिये गए विडियो को देखें।)
Comments

POST YOUR COMMENT

Recent Posts

1st अप्रैल 2024 को विद्यालयों में की जाने वाली गतिविधियाँ | New session school activities.

Solved Model Question Paper | ब्लूप्रिंट आधारित अभ्यास मॉडल प्रश्न पत्र कक्षा 8 विषय- सामाजिक विज्ञान (Social Science) | वार्षिक परीक्षा 2024 की तैयारी

Blueprint Based Solved Question Paper Environmental Study | हल अभ्यास प्रश्नपत्र पर्यावरण अध्ययन कक्षा 5 Exam Year 2024

Subcribe