s

बौद्धकालीन भारत के विश्वविद्यालय - आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी || तक्षशिला, नालंदा, श्री धन्यकटक, ओदंतपुरी विक्रमशिला विश्वविद्यालय

   905   Copy    Share

बौद्धकाल तीन युगों में बाँटा जा सकता है। पहला युग गौतम बुद्ध के समय से शुरू होता है और पाँच सौ वर्ष तक रहता है। इस युग के बौद्ध साधु चरित्र और सच्चे त्यागी होते थे। दूसरा युग ईसवी सन् के साथ प्रारंभ होता है और ईसा की छठीं शताब्दी में समाप्त हो जाता है। इस युग में बौद्धों ने पहले युग के गुण अक्षुण रखने के साथ-साथ शिल्पकला में भी अच्छी उन्नति की थी। सातवीं शताब्दी से तीसरा युग लगता है। उसे तांत्रिक युग भी कह सकते हैं। उसमें बौद्ध महंतों के चरित्र बिगड़ने लगे थे और पहले की जैसी त्यागशीलता जाती रही थी। परन्तु उन लोगों ने आयुर्वेद और रसायनशास्त्र में खूब उन्नति की थी। उनमें से प्रत्येक युग विशेषत्व की छाप उस समय के विश्वविद्यालयों में अच्छी तरह पाई जाती है।

तक्षशिला का विश्वविद्यालय

पहले युग का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय तक्षशिला नगर में था। यह नगर वर्तमान रावलपिंडी के पास था। सुत और विनय-पिटक आदि प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में इसका कई जगह उल्लेख पाया जाता है। प्राचीनकाल में यह एक अत्यंत विख्यात नगर था। एरियन, स्ट्रावो, प्लीनी आदि प्राचीन लेखकों ने इस नगर की विशालता और वैभव संपन्नता की प्रशंसा जी खोलकर की है। अशोक के राजत्वकाल में उसका प्रतिनिधि यहाँ रहता था। बौद्ध ग्रंथों से पता लगता है कि यह अपने समय में विद्या-संबंधी चर्चा और पठन-पाठन का केन्द्र था। वह विश्वविद्यालय बुद्ध के पहले ही स्थापित हो चुका था। इसमें वेद, वेदांग, उपांग आदि के सिवाय आयुर्वेद, मूर्तिकारी, गृह-निर्माण-विद्या आदि भी पढ़ाई जाती थी।

विज्ञान, कला-कौशल और दस्तकारी के सब मिलाकर कोई अट्ठारह विषय पढ़ाए जाते थे। इसमें से प्रत्येक विषय के लिए अलग-अलग विद्यालय बने हुये थे। और भिन्न-भिन्न विषयों को भिन्न अध्यापक पढ़ाते थे। जगत् विख्यात संस्कृतवैयाकरण पाणिनि और राजनीतिज्ञ शिरोमणि चाणक्य ने इसी विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई थी। आत्रेय यहाँ वैद्यक शास्त्र के अध्यापक थे। मगध नरेश बिम्बसार के दरबारी, चिकित्सक और महात्मा बुद्ध के प्रिय मित्र तथा मतानुयायी वैद्यराज जीवक ने तक्षशिला ही के अध्यापकों से चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन किया था। विनयपिटक में महावग्ग नामक एक प्रकरण है जिससे प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली का अच्छा पता लगता है। कई वर्ष अध्ययन करने के बाद एक शिष्य ने अपने उपाध्याय से पूछा कि शिक्षा समाप्त होने में कितने दिन बाकी हैं? उपाध्याय ने उत्तर में कहा कि तक्षशिला के चारों तरफ एक योजन भूमि में जड़ी-बूटियों के सिवा जितने व्यर्थ पौधे मिलें उन सबको जमा करो। बेचारे विद्यार्थी ने नियत स्थान के प्रत्येक पौधे की परीक्षा की, परन्तु उसे कोई भी व्यर्थ पौधा न मिला। शिक्षक महाशय ने अपने परिश्रमी विद्यार्थी की खोज का हाल सुना तो बड़े प्रसन्न हुए। उससे बोले कि तुम्हारी शिक्षा समाप्त हो गई, अब तुम घर जाओ।

तक्षशिला वैदिक धर्मावलंबियों की विद्या का केन्द्र स्थान था । पर बौद्ध धर्म का प्रचार होने पर वहाँ बौद्ध लोग भी पढ़ने-पढ़ाने लगे थे। यहाँ से कई बौद्ध विद्यार्थी ऐसे निकले जो समय पाकर खूब विख्यात हुए। बौद्ध धर्म के सौतांत्रिक संप्रदाय के संस्थापक कुमारलब्ध भी इन्हीं में थे। इनके विषय में ह्वेनसांग लिखते हैं - "सारे भारत के लोग उनसे मिलने आते थे। वे नित्य बत्तीस हजार शब्द बोलते ओर बत्तीस हजार अक्षर लिखते थे। उस समय पूर्व में अश्वघोष, दक्षिण में देव, पश्चिम में नागार्जुन और उत्तर में कुमारलब्ध अत्यंत प्रसिद्ध विद्वान थे। ये चारों पंडित संसार को प्रकाशित करने वाले चार सूर्य कहलाते थे।"

जिस समय तक्षशिला में वैदिक धर्मावलंबियों की प्रबलता थी उस समय तीन बातें ऐसी थीं जिनको यहाँ पर लिख देना हम उचित समझते है । एक तो यह कि उस समय की शिक्षा प्रणाली नियमबद्ध विश्वविद्यालयों की जैसी न थी, परन्तु ऐसी थी जैसी कि वर्तमानकाल में बनारस की है। पर बौद्ध विहारों की पढ़ाई इससे ठीक उल्टी थी। यहाँ की शिक्षा प्रणाली वैसी ही थी जैसी की नियमबद्ध विश्वविद्यालयों की होनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि बौद्ध विहारों की तरह यहाँ पर केवल सन्यासियों को हो शिक्षा नहीं दी जाती थी; किन्तु गुरु और शिष्य दोनों ही गृहस्थ होते थे। यह बात जातक की एक कहानी से और भी स्पष्ट हो जाती है। एक ब्राह्मण ने अपने पुत्र से पूछा कि "तुम कैसा जीवन बिताना चाहते हो?" यदि तुम ब्राह्मण राज्य में प्रवेश करना चाहते हो तो तक्षशिला जाकर किसी विख्यात पंडित से विद्याध्ययन करो। जिससे सुखपूर्वक गृहस्थ जीवन बिता सको । पुत्र ने उत्तर दिया- "मैं वानप्रस्थ बनना नहीं चाहता, मेरी इच्छा गृहस्थ बनने की है।" तक्षशिला के वैदिक विद्यालयों में ध्यान देने योग्य तीसरी बात यह थी कि उनमें केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय बालक ही भर्ती किए जाते थे।

नालंदा का विश्वविद्यालय

बौद्ध काल के दूसरे युग में सबसे बड़ा विश्वविद्यालय नालंदा में था। यह स्थान मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह से सात मील उत्तर की ओर और पटना से चौंतीस मील दक्षिण की ओर था। आजकल इस जगह पर 'बार गाँव' नामक ग्राम बसा हुआ है, जो गया जिले के अंतर्गत है । नालंदा की प्राचीन इमारतों के खंडहर यहाँ अभी तक पाये जाते हैं। सातवी शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने नालंदा की शान व शौकत का बड़ा ही मनोहर वृत्तांत लिखा है। चीन ही में इसने नालंदा का हाल सुना था, तभी से इसे देखने के लिए वह ललचा रहा था। इधर-उधर घूमते घामते जब वह गया पहुँचा तब विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने उसे नालंदा में आने के लिए निमंत्रण दिया। इससे उसने अपने को धन्य समझा। नालंदा में पहुँचते ही उसके दिल पर ऐसा असर पड़ा कि वह तुरन्त विद्यार्थियों में शामिल हो गया।

नालंदा की बाहरी टीमटाम

विद्या लोलुप चीनी सन्यासी नालंदा की भव्यता और पवित्रता देखकर लट्टू हो गया । ऊँचे-ऊँचे बिहार और मठ चारों ओर खड़े थे। बीच-बीच में सभागृह और विद्यालय बने हुए थे। वे सब समाधियों, मंदिरों और स्तूपों से घिरे हुए थे। उनके चारों तरफ बौद्ध भिक्षुकों और प्रचारकों के रहने के लिए चौ-मंजिला इमारत बनी हुई थीं उनके सिवा ऊँची-ऊँची मीनारों और विशाल भवनों की शोभा देखने ही योग्य थी। इन भवनों में नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे। रंग-बिरंगे दरवाजों, कड़ियों, छतो और खंभों की सजावट को देखकर लोग लोट-पोट हो जाते । विद्या मंदिरों के शिखर आकाश से बातें करते थे और ह्वेनसांग के कथनानुसार उनकी खिड़कियों से वायु और मेघ के जन्म स्थान दिखाई देते थे मीठे और स्वच्छ जल की धारा चारों ओर वहाँ करती थी और सुंदर खिले उनकी शोभा बढ़ाया करते थे।

नालंदा का आंतरिक जीवन

विशालता, नियम-बद्धता और सुप्रबंध के विचार से नालंदा का विश्व विद्यालय वर्तमान काशी की अपेक्षा आक्सफोर्ड से अधिक मिलता-जुलता था। विश्वविद्यालय के विहारों में कोई दस हजार भिक्षु विद्यार्थी और डेढ़ हजार अध्यापक रहते थे। केवल दर्शन और धर्मशास्त्र के ही सौ अध्यापक थे। इससे संबंध रखने वाला पुस्तकालय नव-मंजिला था जिसकी ऊँचाई करीब तीन सौ फुट थी। उसे महाराजा बालादित्य ने बनवाया था। इसमे बौद्ध धर्म संबंधी सभी ग्रंथ थे। प्राचीनकाल में इतना बड़ा पुस्तकालय शायद ही कहीं रहा हो।

दुनियाँ में आज कल जितने विश्वविद्यालय हैं सबमें से फीस ली जाती है, पर नालंदा के विश्वविद्यालय की दशा इससे ठीक उलटी थी। केवल यही नहीं कि विद्यार्थियों से कुछ न लिया जाता था। अपितु उन्हें प्रत्येक आवश्यक वस्तु मुफ्त दी जाती थी अर्थात् भोजन, वस्त्र, औषधि, निवास स्थान आदि सब कुछ सेंत-मेंत मिलता था। यह प्रथा हिन्दुस्तान में बहुत ही प्राचीनकाल से चली आई है। गृहस्थ लोग गाँव, खेत, बाग, वस्त्र अथवा नकद रुपया इन विद्यालयों को दान करते थे। इसी से उनका संपूर्ण खर्च चलता था इस प्रकार विद्यार्थियों का बहुत समय और मानसिक शक्ति पेट पूजा के लिए धनोपार्जन करने में नष्ट होने से बच जाती थी और वे इस समय और शक्ति को विद्याध्ययन में लगाते थे। इसका फल यह होता था कि गंभीर विचार वाले, मननशील विद्वान इन विद्यालयों से निकलते थे। इसी से वे लोग बौद्धधर्म, संस्कृति और संसार का अनंत उपकार कर गए हैं।

नालंदा के विश्वविद्यालय में आजकल की सी परीक्षाएँ न होती थीं, किंतु विद्यार्थियों की योग्यता शास्त्रार्थं द्वारा जाँची जाती थी। विद्यालय में भर्ती होने के नियम भी बड़े कड़े थे। जो लोग दाखिल होने के लिए आते थे, उनसे द्वार-पंडित कुछ कठिन प्रश्न करता था, यदि वे उनका उत्तर दे सकते थे तो भीतर जाने पाते थे, नहीं तो लौट जाते थे। इसके बाद शास्त्रार्थ के द्वारा उनकी योग्यता की परीक्षा ली जाती थी। जो इसमें भी अपनी योग्यता प्रमाणित कर सकते थे वही विश्वविद्यालय में दाखिल हो सकते थे। बाकी अपना-सा मुँह लेकर अपना रास्ता लेते थे। मतलब यह कि अच्छे, बुद्धिमान, विद्वान, योग्य और गुणवान् मनुष्य ही विद्यालय में प्रवेश करते थे।

द्वार-पंडित के पद पर वही नियत किया जाता था जो ऊँचे दर्ज का विद्वान होता था। यह पद उस समय बहुत प्रतिष्ठित समझा जाता था। विश्वविद्यालय के सभागृह में सबेरे से शाम तक शास्त्रार्थ हुआ करता था। दूर-दूर देशों से पंडित अपनी शकाएँ दूर करने के लिए वहाँ आते थे। नालंदा के विद्यार्थियों का देश भर में आदर, सत्कार सम्मान होता था। जहाँ वे लोग जाते थे, वहीं उनकी इज्जत होती थी। यों तो नालंदा विश्वविद्यालय के प्रायः सभी अध्यापक उत्कृष्ट विद्वान थे। पर उनमें नव मुख्य थे। ह्वेनसांग ने उनकी सीमा रहित विद्वता, योग्यता, देशव्यापी ख्याति, अद्भुत प्रतिभाशीलता की खूब प्रशंसा की है। उन नव अध्यापकों के नाम ये हैं - धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, ज्ञानचंद्र, शीघ्रवृद्धि और शीलभद्रह्वेनसांग के समय में विश्वविद्यालय के अध्यक्ष थे बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय के जगत् विख्यात संस्थापक नागार्जुन का संबंध भी किसी समय नालंदा विश्वविद्यालय से था।

नालंदा के प्रायः सभी अध्यापक और विद्यार्थी धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे। असल में धार्मिक जीवन बिताने के लिए ही, इसकी सृष्टि हुई थी इसीलिए इसका नाम 'धर्मगंज' पड़ा था। परन्तु पीछे इसकी काया पलट गई थी। दर्शन और धर्म शास्त्र के साथ-साथ व्याकरण, ज्योतिष, काव्य. वैद्यक आदि व्यावहारिक और सांसारिक विद्याएँ भी पढ़ाई जाने लगी थीं। तमाम हिन्दुस्तान के विद्यार्थी इन विद्याओं को पढ़ने के लिए यहाँ आते थे।

श्री धन्यकटक का विश्वविद्यालय

इस युग का दूसरा प्रसिद्ध विश्वविद्यालय श्री धन्यकटक में था। यह स्थान दक्षिण भारत में कृष्णा नदी के किनारे वर्तमान अमरावती के स्तूपों के निकट था।

बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय के चौदहवें धर्मगुरु विख्यात रसायन शास्त्रवेत्ता और चिकित्सक नागार्जुन के समय में यह खुब उन्नत दशा में था। और देश-देशान्तरों में प्रसिद्ध हो गया था। चीनी यात्री इत्सिंग के कथनानुसार नागार्जुन महाशय ईसा की चौथी शताब्दी में थे। वहाँ पर वैदिक और बौद्ध दोनों प्रकार के ग्रंथ पढ़ाये जाते थे। तिब्बत की राजधानी ल्हासा के निकट डायग विश्वविद्यालय इसी के नमूने पर बनाया गया था। पठन-पाठन विधि वहाँ भी वैसी थी जैसी कि नालंदा में।

ओदंतपुरी विक्रमशिला के विश्वविद्यालय

यह हम लिख चुके हैं कि बौद्धकाल का तीसरा युग सातवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। इस समय के बौद्ध महंतों में पहले का जैसा धार्मिक उत्साह बाकी न था परन्तु वैज्ञानिक खोज करने का जोश खूब बढ़ गया था। वैद्यक और रसायन शास्त्र में उन लोगों ने अच्छी उन्नति की थी। इस तांत्रिक बौद्ध धर्म का प्रचार बंगाल और बिहार में बहुत था। उन दिनों मगध में पालवंश के राजा राज्य करते थे। इन्हीं के समय में बौद्ध उपदेशकों ने तिभ्यत जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसमें दो मुख्य विश्वविद्यालय थे, एक ओदंतपुरी में, दूसरा विक्रमशिला में। ये दोनों स्थान बिहार प्रान्त में हैं। मगध में पालवंश का राज्य होने के बहुत दिन पहले ओदंतपुरी में बड़ा भारी विहार बनाया गया था। इसी बिहार के नाम पर कुल प्रान्त का नाम बिहार पड़ गया और मगध नाम लुप्त हो गया। महाराज महिपाल के पुत्र महापाल के समय में ओदंतपुरी विश्वविद्यालय में बौद्धधर्म के हीनयान संप्रदाय के एक हजार और महायान संप्रदाय के पाँच हजार महंत रहते थे। पालवंश के राजाओं ने ओदंतपुरी विश्वविद्यालय में एक बड़ा भारी पुस्तकालय स्थापित किया था। उसमें वैदिक और बौद्ध दोनों प्रकार के हजारों ग्रंथ थे। श्री धन्यकटक विश्वविद्यालय की तरह ओदंतपुरी के नमूने पर भी तिब्बत में शाक्य नामक एक विश्वविद्यालय खोला गया था।

पाल राजा बड़े ही विद्यारसिक और विद्वानों के संरक्षक थे। उनका संबंध एक और विश्वविद्यालय से भी था। उसका नाम था विक्रमशिला। यह विद्यालय भागलपुर जिले के अंतर्गत सुल्तानगंज गाँव के निकट गंगा के दाहिने किनारे पर एक पहाड़ी की चोटी पर था। सब मिलाकर कोई एक सौ आठ भवन थे। इस विश्वविद्यालय के अधीन छः महाविद्यालय थे, जिनमें एक सौ आठ पंडित पढ़ाते थे। इन सब पंडितों तथा अन्य विद्वानों का खर्च पूर्वोक्त महाराज के दिए हुए गाँवों की आमदनी से चलता था। बीच का भवन विधान मंदिर के नाम से विख्यात था। उसमें बिहार के महंत उन पंडितों से बौद्ध ग्रंथ पढ़ते थे जो विश्वविद्यालय के प्रथम और द्वितीय स्तंभ कहलाते थे। राजा जयपाल के शासनकाल में विश्वविद्यालय की देख-भाल के लिए छ: द्वार-पंडित नियत थे। इसी समय महात्मा जेतारि ने एक सन स्थापित किया था, उसमें विक्रमशिला के विद्याथियों को मुफ्त भोजन मिलता था। विद्यालय के स्थाई विद्यार्थियों को भोजन देने के लिए चार सब पहले ही से थे। इसके सिवा वारेन्द्र के अधीश महाराज सनातन ने दसवीं शताब्दी के आदि में एक सत्र और भी खोला था। विश्वविद्यालय के प्रबंध के लिए छ: विद्वानों की एक सभा थी जिसका सभापति सदा राज पुरोहित होता था। महाराज धर्मपाल के समय में अध्यक्ष के पद पर श्री बुद्धज्ञान पादाचार्य नियुक्त थे । ग्यारहवीं शताब्दी में इस पद पर श्रीयुत दीपंकर नियत थे। अपने समय के ये बड़े विद्वान थे। इनकी विद्वता की प्रशंसा सुनकर तिब्बत वालों ने इन्हें अपने यहाँ बनवाया था। इस विश्वविद्यालय से पढ़कर जो विद्यार्थी निकलते थे उनको पंडित की पदवी दी जाती थी। अपने समय के सबसे बड़े नैयायिक पंडित जेतगी ने इसी विश्वविद्यालय से पंडित की पदवी और राजा महापाल का हस्ताक्षरित प्रमाणपत्र पाया था। महाराज उनकी गहरी विद्वता से इतने प्रसन्न हुए थे कि उन्होंने उनको द्वार पंडित के प्रतिष्ठित पद पर नियत किया था। बाद में काश्मीर निवासी रत्नवज्ज नामक एक प्रसिद्ध विद्वान ने भी यहाँ से पंडित की पदवी और राजा चाणक्य का हस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र पाया था। इस विश्वविद्यालय में व्याकरण, अभिधर्म, दर्शन शास्त्र, विज्ञान, वैद्यक आदि कई विषय पढ़ाये जाते थे तिब्बत के लामा विक्रमशिला में आते थे और वहाँ के पंडितों की सहायता से संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद तिब्बती भाषा में करते थे।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

हिन्दी भाषा एवं व्याकरण के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़िए।।
1. 'स्रोत भाषा' एवं 'लक्ष्य भाषा' क्या होती है? इनकी आवश्यकता एवं प्रयोग
2. दुःख, दर्द, कष्ट, संताप, पीड़ा, वेदना आदि में सूक्ष्म अंतर एवं वाक्य में प्रयोग
3. झण्डा गीत - झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
4. घमण्ड, अहंकार, दम्भ, दर्प, गर्व, अभिमान, अहम् एवं अहंमन्यता शब्दों में सूक्ष्म अंतर एवं वाक्य में प्रयोग

इन 👇एतिहासिक महत्वपूर्ण प्रकरणों को भी पढ़ें।
1. भारत देश का नामकरण और इसकी सीमाएँ
2. मध्यप्रदेश के आदिवासी क्रान्तिकारियों का भारत की स्वतन्त्रता में योगदान
3. 1857 की क्रान्ति के पश्चात् भारतीय राष्ट्रीय चेतना का उदय और उसके सहायक तत्व

I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
edudurga.com

Comments

POST YOUR COMMENT

Recent Posts

1st अप्रैल 2024 को विद्यालयों में की जाने वाली गतिविधियाँ | New session school activities.

Solved Model Question Paper | ब्लूप्रिंट आधारित अभ्यास मॉडल प्रश्न पत्र कक्षा 8 विषय- सामाजिक विज्ञान (Social Science) | वार्षिक परीक्षा 2024 की तैयारी

Blueprint Based Solved Question Paper Environmental Study | हल अभ्यास प्रश्नपत्र पर्यावरण अध्ययन कक्षा 5 Exam Year 2024

Subcribe